सांस्कृतिक आदान-प्रदान चीन-भारत सांस्कृतिक संबंध को लाता है नज़दीक

भारत और चीन ने एक जैसी ऐतिहासिक परिस्थितियों का सामना किया जिसने उनके साहित्य को एक आकार दिया, जिसने उनके समाज पर असर डाला और पूरी दुनियाभर में फैल गयी।
by राजीव रंजन
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जून 3, 2017: चिलिन यूनिवर्सिटी का 12वां अंतरराष्ट्रीय सांस्कृतिक त्यौहार शुरू हुआ। एक भारतीय विद्यार्थी चीनी लड़की के साथ फोटो लेते हुए। चांग याओ/शिन्हुआ द्वारा।

भारत और चीन दो प्राचीन सभ्यताएं हैं जो व्यापार में आदान-प्रदान, ज्ञान और संस्कृति का लंबा इतिहास साझा करती हैं। उन्होंने इंसानी सभ्यता में अपने सांस्कृतिक चढ़ावों से महत्वपूर्ण रूप से योगदान दिया है। जैसे वैश्विक परिस्थिति अधिक प्रतिस्पर्धात्मक होती जा रही है, दोनों देश अपने हजारों साल पुराने शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व और समृद्धि के ढांचे को प्राचीन स्वामियों जैसे कि कन्फ़्यूशियस और बुद्ध द्वारा बनाये गए शांतिपूर्ण मार्ग का पालन कर सुदृढ़ कर रहे हैं। संस्कृति किसी भी समाज और राष्ट्र की आत्मा है, और मानवी सभ्यताएं सांस्कृतिक अभ्यास से पनपती हैं। समृद्ध इतिहास और दार्शनिकता के साथ, भारत और चीन पर्याप्त सांस्कृतिक परंपरा, जिसमें साहित्य बेहद प्रमुख हिस्सा है। आम तौर पर, साहित्य में विषय, ढांचा और युक्तियां शामिल हैं। रिचर्ड जी. मॉल्टन ने विश्व साहित्य को ‘सभ्यता की आत्मकथा’ कही थी। विश्व साहित्य सभ्यताओं को अपने आप को समझने में मदद करता है। साहित्य समाज का आईना भी है। भारत में, साहित्य ने इतिहास को संजोने, उसके भूगोल को बेहतर करने और विविधता को बढ़ावा देने में अहम किरदार निभाया है। दोनों भारत और चीन के पास महान विद्वानों और लेखकों की लंबी सूची के साथ साहित्य का अथाह इतिहास है। ऐतिहासिक तौर पर, ह्वेन त्सांग की डायरी भारत के बारे में चीन के ऐतिहासिक अनुभवों का अच्छा उदाहरण हैं ।
इसी तरह, चीन में लाए बौद्ध ग्रंथ बौद्ध ज्ञान के प्रमुख स्रोत हैं जो भारत में उपलब्ध नहीं हैं। आधुनिक जमाने में, रविन्द्रनाथ टैगोर ने कई चीनी लेखकों को प्रभावित किया जिसमें भारत में लू श्वन बेहद प्रसिद्ध प्रगतिवादी लेखक थे जिन्होंने कई लोगों को प्रेरित किया।
भारतीय और चीनी साहित्य विस्तृत और विभिन्न संकलन है जो बहुभाषीय और संस्कृति से बना है और विश्व साहित्य का अभिन्न हिस्सा है। वे न केवल अपने समाज को प्रभावित करते हैं बल्कि उनकी धड़कनें पूरे विश्व में चलती हैं क्योंकि वे विदेशी साहित्य की विकास प्रवृत्ति पर प्रभाव डालते हैं। कन्फ्यूशियस, ताओसिम और लेगालिस्म शास्त्रीय दार्शनिक ग्रंथ अब वैश्विक चेतना का हिस्सा है। चीन के चार प्रमुख शास्त्रीय, द थ्री किंगडम्स, आउटलॉ ऑफ मार्श, जर्नी टू द वेस्ट और द ड्रीम ऑफ द रेड मंशन्स, सभी लोकप्रिय हैं। इसी तरह, भारत के शास्त्रीय लेख जैसे कि वेद, उपनिषद, पुराण, भगवद गीता और रामायण महाभारत को दुनियाभर में पढ़ा और अध्ययन किया जा रहा है।
भारत और चीन साहित्यिक विकास कर मामले में एक जैसे हैं। दोनों देश एक जैसे ऐतिहासिक परिस्थितियों का सामना कर रही है जिसने साहित्य को आकार दिया। दोनों देशों के साहित्य युग को चार हिस्सों में विभाजित किया जा सकता है: शास्त्रीय, प्राचीन, आधुनिक और समकालीन साहित्य।

मई 19, 2007: “ह्वेन त्सांग की तीर्थयात्रा-तिंग ह का पुनर्खोज फ़ोटो काम” की प्रदर्शनी चीन के कैपिटल म्यूजियम में शुरू हुई। पिछले चार सालों में फोटोग्राफर तिंग ह शिनच्यांग उइगुर स्वायत्त क्षेत्र की 13 बार यात्रा की, जो लॉप नूर दो बार पर किया, और ह्वेन त्सांग कि पूरी यात्रा को शिआन से नालन्दा, भारत की फिर खोज की। थाओ शियी/शिन्हुआ


शास्त्रीय युग में, भारत में भाषा का माध्यम संस्कृत था और चीन में शास्त्रीय चीनी था। इस दौरान, ज्ञान का प्रसार एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक मुख्यतः जुबानी परंपरा से होता था। प्रकृति, नैतिकता और आध्यत्मिक ज्ञान ने मुख्य सामग्री को बनाया। प्राचीन युग में, सम्राटों की प्रशंसा, कल्पना की खोज और प्रकृति के सम्मान के लिए साहित्य लिखा जाता था। आधुनिक प्रगतिवादी लेख ग्रामीण लोगों, गांवों, महिलाओं की दुर्दशा और अन्य मसलों का वर्णन करते थे। भारतीय समाज औपनिवेशिक था जबकि चीन भी अर्ध उपनिवेश से प्रभावित था और साहित्य का इस्तेमाल उपनिवेशवाद और सामंती प्रशासन के खिलाफ बतौर औजार करते थे। समकालीन दौर में सुधार और खुलापन आया। यूजर-फ्रेंडली प्रौद्योगिकियों ने बतौर कंप्यूटर और मोबाइल फोन ने हर संभव तरीके से पारंपरिक किताबों को चुनौती दी। पढ़ने और लिखने के नए तरीके बढ़ गए हैं। और भारतीय व चीनी समुदाय वैश्विक प्रचलन के करीबी संपर्क में हैं चूंकि ये दोनों देश अग्रणी विकासशील देश बन रहे हैं। इसलिए दोनों देशों के लेखकों द्वारा विभिन्न साहित्यिक प्रयोग किया जा रहा है। 21वीं शताब्दी को पूर्व की शताब्दी कहा जा रही है। जैसे-जैसे दुनिया कई चुनौतियों का सामना कर रही है जो विश्व ताकत के अदला-बदली और अंतरराष्ट्रीय रिश्तों को पुनर्परिभाषित करने के साथ चीन और भारत दोनों महत्वपूर्ण वैश्विक ख़िलाड़ियों के तौर पर उभर रहे हैं। भारत और चीन की सरकारें विभिन्न मंचों, महत्वपूर्ण बहुपक्षीय रणनीति साझा करने, आर्थिक और सांस्कृतिक रिश्तों पर एक-दूसरे के संपर्क में रहे हैं। दोनों सरकारें इन मामलों से निपटने के लिए निरंतर प्रयास कर रहे हैं। भारत-चीन रिश्तों में चुनौतियों के बावजूद नए दरवाजे खुल रहे हैं। व्यापार सहयोग, पर्यटक यात्राएं, विद्यार्थियों और अनुसंधानकर्ताओं का विनिमय, और फ़िल्म आदान-प्रदान ने चीनी और भारतीय को समझने में मदद की है। दोनों ओर से व्यक्ति से व्यक्ति अनुबंध की करीबी काफी बढ़ गयी है, लेकिन भाषा संपर्क में एक रुकावट बनी हुई है। एक दूसरे का सहित्य पढ़ने के लिए, अक्सर अंग्रेजी अनुवाद का वाहक है। लेकिन बातचीत के लिए औपनिवेशिक किसी तीसरी भाषा का इस्तेमाल एक-दूसरे को ठीक से समझने के लिए सही तरीका नहीं है। चीनी से हिंदी और हिंदी से चीनी के प्रत्यक्ष अनुवाद को बढ़ावा देना चाहिए और चीनी और हिंदी पढ़ाना चाहिए। हाल के दिनों में चीन ने इस क्षेत्र में बहुत अर्थपूर्ण काम किया है, लेकिन भारत को बहुत अधिक करने की ज़रूरत है।
सरकारों को संस्कृति विनिमय से राजनीति दूर रखने की ज़रूरत है और शैक्षणिक विनिमय के लिए सकारात्मक नीतियां बनानी चाहिए। मीडिया जो जनता के विचारों पर गहराई से असर डालती है, ने बहुत बड़ा किरदार निभाया है जो अब बदलने की ज़रूरत है। साथ ही, अधिक प्रकाशकों और लेखकों के अधिक किताबी मेलों, साहित्य त्यौहार, शैक्षणिक संवाद और गोष्ठियां में शामिल होने की ज़रूरत है। पिछले एक दशक में स्थितियां सुधरी हैं। सन् 2016 में दोनों सरकारों द्वारा भारत-चीन अनुवाद कार्यक्रम शुरू किया गया। चीन में हिंदी संस्थानों की संख्या तीन से बारह हो गयीं और, तीस से अधिक अतिरिक्त विश्वविद्यालयों ने भारत में चीनी पढ़ना शुरू किया है। भारतीय और चीनी छात्राओं की बढ़ती संख्या एक दूसरे के देश में मास्टर्स और डॉक्टरेट की डिग्री ले रहे हैं। नई पीढ़ी स्पष्ट रूप से सहित्य और संस्कृति विनिमय में अहम भूमिका निभा रही है।

लेखक दिल्ली स्कूल ऑफ जर्नलिज्म, दिल्ली विश्वविद्यालय में बतौर मेहमान चीनी पढ़ाते हैं।