पारस्परिक विनिमय और संपूरकता का महत्व

भारत और चीन एक साथ काम करने के लिए प्रचुर मात्रा में उपलब्ध अपने एकसमान जमीन का इस्तेमाल व्यापर, वाणिज्यिक, निवेश और संस्कृति जैसे क्षेत्रों में कर सकते हैं।
by अजीत रानाडे
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लेखक आदित्य बिरला समूह के वरिष्ठ अध्यक्ष और मुख्य अर्थशास्त्री हैं। यह लेख बीएफए के दौरान लिए गए इंटरव्यू पर आधारित है, जहां वे पैनेलिस्ट थे।

बोआओ फोरम ऑफ़ एशिया (BFA) एशिया के महत्व और विश्व के साथ इसके रिश्ते पर चर्चा का अवसर दे रहा है। जब से इसे शुरू किया गया काफी कुछ हुआ है। मगर भारत का सहभाग, कम से कम सरकारी, उच्चस्तर से प्रतिनिधियों को शामिल नहीं किया गया। भारत ने निश्चित रूप से कई शीर्ष स्तर के सरकारी अधिकारियों को भेजा लेकिन उस पैमाने पर नहीं जैसा ऑस्ट्रेलिया और नीदरलैंड, जहाँ उनके प्रधानमंत्रियों ने भाग लिया।
अब भी, यह घटना काफी हद तक भारत के लिए प्रासंगिक है। चर्चाएँ, सालाना विषय और नीति से जुड़े मुद्दे भारत के लिए बेहद महत्वपूर्ण और प्रासंगिक हैं।
हमेशा कुछ नया सीखते हैं। मैं एक पैनल में बैठा था और हमने ग्रामीण विकास के विषय पर चर्चा की। मैं यह जानकार आश्चर्यचकित था कि दक्षिण कोरिया ने भी इस मुद्दे पर काम किया है। लेकिन दक्षिण कोरिया की वर्तमान चुनौती कुछ हद तक उलट है। जब से युवा वयस्क बुजुर्गों को छोड़कर काम के सिलसिले में बाहर जाते हैं वहां के गाँव खोखले होते जा रहे हैं। गांवों में अब बहुत उद्योग नहीं रहे हैं। गांवों में व्यापार और आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा देकर यह देश शहर से गांवों की ओर, उलट स्थानांतरण की प्रवृत्ति की कोशिश कर रहा है।

एशियाई शताब्दी में भारत की भूमिका
हमें फिर से गांवों को देखने की जरुरत है। अपने एशियाई साथियों की तुलना में, भारत का अब भी केवल 30 फ़ीसदी शहरीकरण हुआ है। और देश के शहरीकरण की गति काफी धीमी भी है। आज भी करीब 55% लोग कृषि पर निर्भर हैं लेकिन राष्ट्रव्यापी कमाई में उस की योगदान-दर सिर्फ़ करीब 14% है, आंकड़ा जो कम होता जा रहा है।
उत्पादन शक्ति को उन्नत कर आमदनी को बढ़ाना भारत के सामने आयी चुनौती है। वास्तव में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने घोषणा की थी कि सरकार अगले पांच सालों में किसानों की आय दोगुनी करना चाहती है। लेकिन मेरा मानना है कि जिन चुनौतियों ने भारतीय कृषि के नाक में दम कर रखा है उनके हल कृषि से बहार मिलेंगे।
हमें जल्दी ही ग्रामीण श्रमिकों के दूसरे उद्योगों और सेवाओं में अवशोषित करने का रास्ता ढूंढना होना चाहिए। इसे पूरा करने के लिए हमें उन क्षेत्रों में काम करने की अवस्था में सुधार लाना होना चाहिए। औद्योगिक क्षेत्र में बड़े पैमाने पर रोजगार के साथ-साथ उत्पादन क्षमता और मज़दूरों के वेतन स्तर को उन्नत किया जाना चाहिए।
और यहां एक मौका बन सकता है चीन के साथ काम करने का, क्योंकि चीन का कामकाजी वर्ग परिपूर्णता तक पहुंच रहा है जो मजदूरों की कमी का कारण बन रहा है। चीन में वेतन उच्चतम स्तर पर पहुंच रहा है। लंबे समय से चीन में यह स्थित रहेगी।
यह होने के बाद, चीन में कम खर्च श्रम गहन उद्योग व्यवहारिक नहीं रह जाएगा। चीन का विकास मुख्यरूप से प्रतिस्पर्धा को लेकर है, जो श्रम गहन और कम खर्च मजदूर होना, दोनों के द्वारा पूरा हो रहा है। और यह निश्चित रूप से निर्यात आधारित था। लेकिन जैसे ही मजदूर ज्यादा महंगे होंगे, चीन कम खर्च निर्माण वाले मजदूरों पर निर्भर उद्योंगों को खाली कर देगा। जिसकी वजह करीब 100 मिलियन नौकरियां तक गंवा सकता है। ये नौकरियां ऐसे किसी भी देश के लिए उपलब्ध रहेंगी जो लेना चाहती हैं।
वे लोग चीन से बाहर निकलकर वियतनाम, बांग्लादेश या भारत के पक्ष में जा सकते हैं। इस तरह के विकास में भारत को बहुत बड़े मौके ढूंढने चाहिए। ये ठीक वैसी ही ऐसी नौकरियां हैं जैसी भारत की ग्रामीण जनता को चाहिए।
बहुत सारे लोग अब भी सोच रहे हों कि भारत एक शक्तिशाली देश बन सकेगा या नहीं। इससे पहले हम इस प्रश्न के बारे में सोचें भी, मेरा ऐसा मानना है कि यह अप्रासंगिक है क्योंकि हमारे पास बहुत से घरेलू मुद्दे हैं जिनसे निपटने की जरूरत है। निकट भविष्य के लिए, हमारी प्राथमिकता घरेलू विकास, गरीबी हटाना, जीवनस्तर बढ़ाना, स्वास्थ्य और शिक्षा होने वाली है।

मार्च 1, 2016: भारत के कर्जत में एक किसान चावल के पौधों के गट्ठे को बांधते हुए ताकि उसे दूसरे खेत में लगा सके। (रायटर)

भारत-चीन संबंधों को मजबूत करना
भारत और चीन मिलकर विश्व की 37 फीसदी आबादी के घर हैं। जैसे उनकी राष्ट्रीय कमाई और जनसंख्या बढ़ रही है, उनके मध्यमवर्गीय लोग काफी विकसित होंगे।
यह बहुत बड़ा उपभोक्ता आधार तैयार करेगा जो इन देशों में व्यापार के लिए पूरे विश्व को और अधिक प्रेरित करेगा। दोनों के पास बहुत सारे पारस्परिक संपूरकता के पहलू हैं।
मुझे नहीं लगता हमें भारत और चीन के बीच राजनीतिक असहमति को दूसरी चीजों पर हावी होने देना चाहिए। यहां बहुत सारा सामान भूक्षेत्र है जिस पर दोनों देश मिलकर व्यापार, वाणिज्य, निवेश और संस्कृति के क्षेत्र में काम कर सकते हैं।
चीन के पास बहुत मात्रा में विदेशी निवेश है और भारत को इंफ्रास्ट्रक्चर में और अधिक निवेश लाने की जरूरत है। सारा चीनी पैसा यूएस कोषागार बांड में जाने के बजाय, यदि 30 से 40 बिलियन यूएस डॉलर भी भारत में जाता है तो, वह आकर्षक 7 फीसदी ब्याज दर आरएमबी में प्राप्त करेगा, जो कि यूएस निवेशों से प्राप्त हो सकने वाले से अधिक है।
हमें यात्रा और पर्यटन पर भी विचार करना चाहिए। विश्व के किसी भी देश की तुलना में चीन में सर्वाधिक पर्यटक विदेशी जाते हैं। 107 मिलियन से अधिक चीनी नागरिकों ने विदेश यात्रा की है जबकि उनमें से सिर्फ 0.7 फीसदी ने भारत का दौरा किया।
भारत को विशेष पर्यटन संकुल की जरूरत है और इसे अपने पर्यटन सुविधाओं में सुधार लाना चाहिए, जो वह चीनी निवेश से कर सकती है। यह निश्चित रूप से भारत में विदेशी पूंजी को आकर्षित करेगा और व्यापार में हो रहे घाटे को कम करेगा।
भारत के दवा उत्पादों में पहुंच एक और अच्छा इलाका है सहयोग का। भारत कम खर्च वाली दवाएं बनाता है और चीन अपना स्वास्थ्य खर्च कम करना चाहता है। और बिल्कुल, फिल्मों को न भूलें!
ऐसे बहुत से क्षेत्र हैं जहां भारत और चीन एक दूसरे के पूरक हैं। एक दूसरे से हम क्या सीख सकते हैं, इस मामले में एक नजर वर्तमान में चीन में तेजी से हो रहे परिवर्तन पर डालिये जो कुछ दूसरा है।
चीन की गति और विकास को सुविधाजनक बनाने के लिए संचालन के क्रियान्वयन को यदि भारतीय सीख सकें, तो यह कुछ ऐसा उदाहरण होगा जो निश्चित रूप से भारत की मदद करेगा।
चीन डेमिंग प्राइज के लिए, जो गुणवत्ता के मामले में वैश्विक पुरस्कार है (यह संपूर्ण गुणवत्ता प्रबंधन या टीक्यूएम पुरस्कार देता है) जैसी चीजों में भारत से सीख सकता है। यह पुरस्कार कुछ हद तक उद्योगों के लिए नोबेल पुरस्कार जैसा है, और पिछले 20 सालों में कई भारतीय कंपनियों ने डेमिंग प्राइज जीता है। चीनी कंपनियों ने ज्यादा नहीं जीते हैं।
चीनी कंपनियों के पैमाने पर भारत प्रतिद्वंदिता नहीं करता, लेकिन उसके पास कई विश्व स्तरीय उपक्रम हैं। इस अंतर के बारे में सीखना कुछ और है, जो चीनी कंपनियों की मदद कर सकती है।

लेखक आदित्य बिरला समूह के वरिष्ठ अध्यक्ष और मुख्य अर्थशास्त्री हैं। यह लेख बीएफए के दौरान लिए गए इंटरव्यू पर आधारित है, जहां वे पैनेलिस्ट थे।