भारत का सबसे साफ शहर

नागरिकों का सहभाग सामाजिक गर्व के निर्माण के साथ एक साफ-सुथरा शहर बना सकता है।
by पत्रलेखा चैटर्जी
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मैसूर को सिर्फ अपने शानदार निर्माणों के लिए ही नहीं भारत का सबसे साफ शहर होने के लिए जाना जाता है। (वीसीजी)

मिट्टी के बर्तन बनाने वाली एक कॉलोनी एक शहर व देश को साफ रखने में, जो कचरे के निपटान से जूझ रहा है, को क्या सबक दे सकती है? काफी कुछ, जो मैंने हाल ही में दक्षिण भारत में एक शहर के बाहरी परिसर में अपनी यात्रा के दौरान पाया। मैसूर अपने महाराजों या प्राचीन राजाओं के आलीशान हवेलियों के साथ-साथ भारत का “सबसे साफ शहर” के तौर पर जाना जाता है। लगातार दूसरे साल, शहर प्रशासन के घनकचरा व्यवस्थापन, शौचालय निर्माण, साफ-सफाई रणनीति, जनजागृति और अन्य उपायों पर शहरी विकास मंत्रालय की राष्ट्रीय श्रेणी में मैसूर सर्वप्रथम आया है।
जुलाई 2016 में, मैसूर उन तीन शहरों में से एक था जिसे भारत के प्रमुख पर्यावरण एनजीओ, द सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट द्वारा साफ शहर पुरस्कार दिया जाने वाले थे। घोषणा में विजेता शहरों को ऐसी जगह जहां “महानगर कचरा प्रबंधन प्रणाली जो वास्तव में काम करती है” बताया गया।
यह एक रोचक कहानी है कि कैसे इतने सालों में मैसूर ने उस देश में इतना कुछ हासिल किया जहां अधिकतर शहरी निवासी हर रोज कचरे का अंबार देखते हैं। ऐसे में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारतीय शहरों और गांवों की सफाई को बढ़ावा देने के लिए स्वच्छ भारत अभियान नाम की मुहिम शुरू कि, इस शहर ने पूरे भारत के लिए एक उदाहरण पेश किया।
शहरी भारत कचरे में डूब रहा है। एक अनुमान के मुताबिक, हर साल भारत की 377 मिलियन जनसंख्या अंदाजन 62 मिलियन टन, जिसे विशेषज्ञ “महानगरपालिका घनकचरा” कहते हैं, पैदा करती है। रास्तों और गलियों दोनों जगह संपन्न व कामकाजी पड़ोस में दिखाई देने वाली सिर्फ कचरा समस्या नहीं है. इसका संबंध वास्तविक तौर पर इकठ्ठा किये गए कचरे पर अपर्याप्त प्रक्रिया है भी है। भारत सरकार ने पहले भी सुधारों को लेकर कोशिशें की हैं। 2000 में, सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त एक समिति की सिफारिशों पर आधारित, उसने महानगर घनकचरा के प्रबंधन के लिए नियमों का एक संग्रह लागू किया।
रास्तों पर पड़े कचरों से होने वाले पर्यावरण नुकसान और स्वास्थ्य पर असर को कम करने के लिए नियम नगरपालिका द्वारा विभिन्न प्रौद्द्योगिकीयों के इस्तेमाल की सिफारिश करता है। लेकिन अधिकतर शहरों के लिए, भराव क्षेत्र में प्रणालीगत कचरा निपटान का अधिक एकीकरण करने के साथ कचरा पुनरुपयोग और पुनर्वियोजन की रणनीतियां बहुत बड़ी चुनौती बनी हुई है।
यहीं पर मैसूर एक प्रेरणादायक उदाहरण पेश करता है: रहवासियों को सूखे कचरे से “गीला” जैविक कचरे को अलग करने और दोनों के लिए अलग रंग के कचरे के डिब्बे इस्तेमाल करने का प्रशिक्षण दिया गया है। मैसूर नगरपालिका द्वारा नियुक्त किये गए सामाजिक कर्मचारी, पौराकर्मिकास के नाम से पहचाने जाने वाले, सामग्रियों को उठाकर और ट्रक या हाथगाड़ी से शहर के परिसर में स्थित संयंत्रों तक पहुंचाते हैं।
उन संयंत्रों में, मजदूर इन सामग्रियों का और अधिक वर्गीकरण करते हैं जिसे भंगार के व्यापारियों में बेचा जा सकता है।
यह एक विकेंद्रिय आदर्श है जो कुछ नगरपालिका संसाधनों, नागरिक समाज और रहवासियों व व्यापारियों से काफी सहयोग पर झुकाव रखता है। और यह काम कर रहा है। मैसूर के रस्ते ही सिर्फ कचारामुक्त नहीं है बल्कि उनका लगभग सारा कचरा पुनर्प्रक्रिया से गुजरता है।

लगातार दूसरे साल मैसूर घन कचरा व्यवस्थापन, स्वास्थ्य सुविधा निर्माण, स्वास्थ्य रणनीतियों और लोगों तक पहुंचने के क्षेत्रों में शहर विकास विभाग की ओर से पहला स्थान प्राप्त किया गया। (वीसीजी)

लोगों का सहभाग
शहर के कुम्बरकोपल वार्ड में घूमना मैसूर के इतने साफ रहने को समझने के लिए एक महत्वपूर्ण कदम है। यह वार्ड कचरा वर्गीकरण स्थान का घर है जिसे बतौर “शून्य कचरा प्रबंधन इकाई” जाना जाता है। यहां से 95 फीसदी कचरा बेच दिया जाता है जबकि सिर्फ 5 फीसदी भराव क्षेत्र में जाता है।
कुम्बरकोपल का मतलब है “मिट्टी के बर्तन बनाने वाली बस्ती”। इस क्षेत्र में सबसे पहले आकर बसने वाले लोग प्राथमिक तौर पर मिट्टी के बर्तनों के व्यापार में कार्यरत थे।
आज, यह वार्ड कचरे को किस तरह दोबारा इस्तेमाल में लाया जाता है इस पर महत्वपूर्ण सीख देता है। यह कचरा प्रबंधन संयंत्र, द फेडरेशन ऑफ मैसूर सिटी कॉर्पोरेशन वार्ड्स पार्लियामेंट नामक एनजीओ द्वारा चलाया जाता है। हर तरह के कल्पना किये जाने वाले इस्तेमाल किये जा चुके सामान जिनमें जूते, दूध के डिब्बे, बियर की बोतलें, और प्लास्टिक से उपयोग में लाये जा चुके डियोडरेंट यहां आते हैं।
कचरों का वर्गीकरण लेबल के साथ 35 श्रेणियों में किया जाता है और कचरे के व्यापारियों को बेचा जाता है जो इसे पुनर्प्रक्रिया करने वालों और सामग्रियों का पुनरुपयोग करने वाले उद्योगों को बेचते हैं। कुछ भी फेंका नहीं जाता, यहां तक कि बोतल के ढक्कन भी नहीं। जैविक कचरे को किसानों को बतौर खाद बेचा जाता है।
2012 में स्थापित, कुम्बरकोपल मैसूर का पहला शून्य कचरा प्रबंधन केंद्र था। आज, यह शहर नौ ऐसे केंद्रों को चलाता है जो मैसूर के 65 वार्डों का तकरीबन आधा कचरा संभालता है। और अन्य 47 छोटे केंद्र सिर्फ सूखे कचरे को संभालते हैं। डूडा थिममया मदेगौड़ा इस संघ के अध्यक्ष हैं और वे इलाके को अच्छी तरह जानते हैं। एक स्थानीय राजनेता, मदेगौड़ा घन-कचरा व्यवस्थापन को राजनीतिक मुद्दा बनाने में मददगार रहे हैं। उनका कहना है कि “कचरे से निपटने से ज्यादा लोगों को समझना ज्यादा महत्वपूर्ण है। अगर आपको कुछ भी लागू करना है तो अपने वार्ड में लोगों का भरोसा जीतना होगा। मैं धार्मिक समुदायों से भी मिला और उन्हें उचित तरीके से कचरा इकट्ठा करना बताया।”
वे शहर के विरासत की ओर इशारा कर रहे हैं। मैसूर भाग्यशाली था जिसके पास प्रबुद्ध शासक थे, वोडेयर्स, एक राजवंश जिन्होंने मैसूर राज्य पर 14वीं शताब्दी से 1947 में भारत को ब्रिटेन से मिली स्वतंत्रता तक शासन किया। वोडेयर्स ने सिर्फ शानदार महल ही नहीं बनाए बल्कि एक मजबूत भूमिगत पानी निकासी प्रणाली बनाई और एक बेहतर शहर नियोजन के लिए ठोस आधार रखा।
मदेगौड़ा का कहना है “अब मैसूर भारत का सबसे साफ-सुथरा शहर है और घनकचरा व्यवस्थापन के लिए जाना जाता है जो इसके इतिहास में है।” मैसूर ने 1903 में भारत को सबसे पहली शहर नियोजन संस्था, शहर सुधार ट्रस्ट मंडल (सिटी इम्प्रूवमेंट ट्रस्ट बोर्ड) दिया। 1908 में रास्तों पर लाइट लगा दी गयी थीं। भूमिगत जल निकासी व्यवस्था 1910 में स्थापित की गयी थी। भारत की स्वतंत्रता के बाद जो भी स्थानीय सरकारें रही हैं उन्होंने भी शहर सुधार और नागरिक सहभाग की परंपरा जारी रखी है।
लोगों में कचरे के वर्गीकरण को लेकर आदत विकसित करने के लिए प्रेरित करने में कई सालों की सतत कोशिश की आवश्यक्ता है। मदेगौड़ा ने माना कि “जनजागृति कार्यक्रम हमेशा बदलाव नहीं लाते हैं।”
“इसलिए मैंने दूसरा रास्ता अपनाया जिसमें एक रणनीति के तहत रहवासियों की कल्याण संस्थाओं को सक्रिय कर शामिल करना, प्रत्येक रास्ते के लिए एक समुदाय प्रतिनिधि नियुक्त करना, नगरपालिका के सफाई कर्मचारियों को “शहर के मित्र” नाम देना और यह निश्चित करना की हर पड़ोस में कम से कम दो ऐसे कर्मचारी उपलब्ध रहें। भारथी मारिअप्पा, जो कि गृहणी हैं और कुम्बरकोपल कचरा संयंत्र के पास रहती हैं, वे इसका पूरा श्रेय संघ को देती हैं जिसने उन्हें कचरा वर्गीकरण के महत्व के बारे में जागरूक किया। महिलाओं के एक सामाजिक समूह ‘स्त्री शक्ति’ ने भी जागरकता में काफी मदद की।
उन्होंने कहा “स्त्री शक्ति की महिला स्वयंसेवकों ने वर्गीकरण के विचार का परिचय किया। पहली नजर में यह बहुत मुश्किल था। इसका मतलब था अतिरिक्त काम। पर वे दृढ़ थे। मेरी 15 साल की बेटी कचरे के वर्गीकरण को लेकर मुझ से कहीं ज्यादा जागरूक है जब मैं उसकी उम्र की थी।”
स्त्री शक्ति स्वयंसेवक लक्ष्मी कहतीं हैं, “आज से छह साल पहले ज्यादातर लोग गीले और सूखे कचरे अलग करने को लेकर राजी नहीं थे। उनकी शिकायत थी कि वर्गीकरण उनका काम बहुत बढ़ा देगा। लेकिन हम हर घर गए और उन्हें यह करने के लिए समझाया। हमने पर्चे बांटे। हमने उन्हें जुर्माने को लेकर भी चेतावनी दी। जो भी इस नियम का पालन नहीं करेगा उस पर जुर्माना लग सकता है। मुझे खुशी है कि मैं बदलाव लाने में कामयाब रही और, मैसूर को भारत का सबसे साफ-सुथरा शहर, जो हम आज देख रहें उसमें योगदान कर पाई।
मैसूर के एक दूसरे शून्य कचरा संयंत्र जो महिला स्वयं सहायता समूह द्वारा चलाया जाता है, वहां मैं ज्योति मंजूनाथ से मिली। युवा महिला उस समूह की संस्थापक सदस्यों में से एक थीं। यह संयंत्र पहली बार 2013 में शुरू हुआ। पहले स्वयं सहायता समूह की महिलाओं को एक एनजीओ की ओर से शून्य कचरा व्यवस्थापन पर प्रशिक्षण दिया गया।
आज, कचरे की बिक्री से मिली सभी कमाई सभी सदस्यों में बांटी हुई है। जो कमाई होती है वो भी एक आपातकालीन निधि में जमा की जाती है। मंजूनाथ का कहना है कि इस पैसे का इस्तेमाल सदस्यों के बच्चों की स्कूल फीस और अन्य जरूरतों के लिए किया जाता है।

गर्व का समय
सी. जी. बेत्सुर्मथ, जिन्होंने हाल ही तक बतौर मैसूर शहर नगरपालिका की कमिश्नर स्थानीय प्रशासन का नेतृत्व किया, उनका मानना है कि मैसूर भारत का सबसे साफ शहर बना चार “आर” रिड्यूसिंग, रीयूजिंग, रीसाइकिलिंग और रीफ्यूजिंग के इस्तेमाल से। आखिर वाले का अर्थ है कि जो लोग घरों से कचरा उठाते हैं वे उन्हें लेंगे जबतक यह पूरी तरह से वर्गीकृत नहीं हुआ है। इस कार्यक्रम ने शहर के कचरे को पैसे में बदलने में मदद की। महानगरपालिका एक निजी कंपनी के साथ मिलकर एक खाद संयंत्र भी चलाती है। बेत्सुर्मथ ने बताया कि वह कंपनी महानगरपालिका को रॉयल्टी देती है।
बेत्सुर्मथ को अपने और उनके पहले के अधिकारियों द्वारा हासिल की गई उपलब्धियों पर गर्व है। मैसूर में 100 फीसदी घर-घर से कचरा उठाया जाता है, 80 फीसदी कचरा प्रक्रिया के पूर्व वर्गीकृत किया जाता है, मैसूर का 98 फीसदी पानी निकासी जाल पूरी तरह ढका हुआ है व नियमित रूप से साफ और रखरखाव महानगरपालिका द्वारा साफ किया जाता है।
मैसूर में हर एक घर में शौचालय है जहां पानी की आपूर्ति होती है, ऐसे में मैसूर वास्तव में खुले में शौच से मुक्त है। इसके विपरीत, हाल ही में किए गए अध्ययन में पाया गया कि 52 फीसदी ग्रामीण भारत और 7.5 फीसदी शहरी निवासी खुले में शौच करते हैं। इनमें से लगभग बहुत कुछ मोदी के स्वच्छ भारत कार्यक्रम से पहले था, लेकिन इस अभियान और साफ शहर प्रतियोगिता ने स्थानीय प्राधिकरणों में जोश भरा, वर्तमान उपक्रमों को मजबूत किया और अतिरिक्त उपायों के जरिये इसे बढ़ावा दिया।
दो नए खाद संयंत्रों के लिए योजना बनाई गयी है। इसके साथ ही, 425 शौचालयों की पहचान मरम्मत के लिए की गई है और काम करने के लिए निधि का प्रावधान किया गया। व्यापारिक केंद्रों में और अधिक सार्वजनिक शौचालयों के निर्माण के लिए योजनाएं रूपरेखा बनाई जा रही हैं।
महानगरपालिका के स्वास्थ्य अधिकारी, डॉ डी. जी. नागराज ने बताया कि, “हमारे पास स्वास्थ्य इंस्पेक्टर, जल निकासी इंस्पेक्टर और पर्यावरण इंजीनियरों का एक दल है। हर एक सफाई कर्मचारी को एक विशेष सफाई काम सौंपा जाता है। कुछ झाड़ू लगाते हैं, कुछ घर-घर से कचरा उठाते हैं और कुछ शिकायतों व समस्याओं से निपटते हैं। स्वास्थ्य इंस्पेक्टर और पर्यवेक्षक औचक दौरा करते हैं। हर सुबह महानगरपालिका और ठेके पर काम करने वाले कर्मचारियों की हाजिरी की जांच की जाती है। अगर कोई ठीक से काम नहीं करता पाया गया तो उनके वेतन से जुर्माना काटा जाता है।
यह सिर्फ एक प्रौद्योगिकी नहीं है बल्कि आमने-सामने की बातचीत है, बेसुमथ ने जोर देते हुए कहा। “हमने वर्गीकरण, शहर को साफ रखने और मैसूर को सबसे साफ शहर बनाये रखने के संदेश देने वाले डिजिटल डिस्प्ले लगाए हैं। हमने बहस या चर्चा पर बहुत काम किया।” उनका शहर सबसे साफ-सुथरे शहर की श्रेणी में देश में अव्वल होने की वजह से जो गर्व मैसूर निवासियों को होता है वो बेहद स्पष्ट है।
मैंने कई अलग-अलग लोगों और संस्थानों जो इस बदलाव में शामिल थे से सुना। एक स्वयंसेवक शरथ कश्यप ने बताया कि एक स्थानीय एनजीओ एच. वी. राजीव स्नेहा बलगा हर रविवार कई स्थानीय शैक्षणिक संस्थानों और छात्रों के साथ मिलकर सार्वजनिक इलाकों में सफाई अभियान चलाता है। इस साल 24 जुलाई को इस अभियान ने 100वां सप्ताह पूरा किया। इसके उपलक्ष्य में पौराकर्मिकों, जो कचरा उठाते हैं, उनके योगदान के लिए उन्हें सम्मानित किया गया।
सोशल मीडिया ने भी मैसूर के इस प्रयास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। करीब दो साल पहले, लोकप्रिय मैसेजिंग प्लेटफॉर्म व्हॉट्सएप्प पर क्लीन मैसूर ग्रुप की शुरुआत की गई और आज इसमें 300 से भी अधिक सदस्य हैं। ग्रुप के एक सक्रिय सदस्य श्याम सुंदर सुब्बाराव ने इस माध्यम के अधिकारियों पर जवाबदारी सुनिश्चित करने का एक जरिया बताया। सुब्बाराव ने समझते हुए कहा कि “यह हमारी समस्याओं की ओर जनप्रतिनिधियों का ध्यान खींचने में मदद करता है। निवासी आसानी से यहां-वहां पड़े हुए कचरे का फोटो व्हॉट्सएप्प ग्रुप पर पोस्ट कर सकते हैं। यह पालिका अधिकारियों पर दबाव बनाता है जिसकी वजह से जल्द से जल्द समस्या ठीक हो जाती है।”
कुछ मामलों में, मैसूर भारत से बहुत अलग है। करीब 1 मिलियन से थोड़ी कम आबादी के साथ, यह देश के सब से बड़े शहरों से नहीं है। और शहर की धरोहर या विरासतों की देन है जिसकी वजह से हर साल मैसूर में 3 मिलियन से ज्यादा पर्यटक यहां आते हैं जो इसकी अर्थव्यवस्था को ईंधन देता है।
भारत और किसी अन्य जगह के शहरों के लिए यह शहर काफी कुछ सीख देता है: नागरिक सहभाग एक साफ शहर के साथ-साथ सामाजिक गौरव को प्रोत्साहन देता है। मोदी के स्वच्छ भारत अभियान के प्रचार विज्ञापनों में राजनेता और मशहूर हस्तियां आम तौर पर रास्तों की सफाई करते हुए दिखाई जाते हैं। मैसूर यह दिखाता है कि कैसे स्वच्छता के लिए पहचान बनाने के लिए बहुत कुछ करना पड़ता है।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं तथा विकास नीति विश्लेषक और यूनिसेफ भारत के स्वास्थ्य विभाग और संपर्क विभाग के लिए सलाहकार थीं।