गंगा को बचाना

सन 1896 में, ब्रिटिश बक्टेरियोलॉजिस्ट ई हैनबरी हैंकिन, आगरा के तत्कालीन मुख्य स्वास्थ्य अधिकारी ने कॉलरा से मरे लोगों के फेंके गए शवों के पास से गंगा (जिसे गंगे के नाम से भी जाना जाता है) नदी से लि...
by अतुला गुप्ता
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मई 4, 2016: हिंदू तीर्थयात्री पवित्र गंगा एन डुबकी लगाते हुए (वीसीजी)

सन 1896 में, ब्रिटिश बक्टेरियोलॉजिस्ट ई हैनबरी हैंकिन, आगरा के तत्कालीन मुख्य स्वास्थ्य अधिकारी ने कॉलरा से मरे लोगों के फेंके गए शवों के पास से गंगा (जिसे गंगे के नाम से भी जाना जाता है) नदी से लिये गए पानी के नमूने के विश्लेषण के दौरान एक पेचीदा खोज की।
उन्होंने पाया कि कॉलरा के रोगाणु गंगा के पानी में सिर्फ तीन घंटे के भीतर मार जाते हैं जबकि साधारण पानी में 48 घंटे के बाद भी जीवित रहते हैं। फ्रेंच जर्नल अनाल्स डे इंस्टिट्यूट पास्टयुर ने उनकी इस खोज को प्रकाशित किया। वह पहला वैज्ञानिक अध्ययन था जिसे भारतीय लोग शताब्दियों से जानने का दावा करते हैं: गंगा नदी की दिव्य लगने वाली, रोग निवारक ताकतें।
एक शताब्दी से तेजी से आगे बढ़ते हुए, एक और पश्चिमी, नेशनल जियोग्राफिक के वीडियोग्राफर पीटर मैकब्राइड, 2013 में गंगा नदी की लंबाई को हिमालय में इसके उद्गम, बर्फ से समुद्र तक पता लगाने के लिए भारत आये। उस प्रक्रिया उद्गम के दौरान वे भी पानी की गुणवत्ता और जहीरलेपन के स्तर को जांचने के लिए अलग-अलग जगहों से पानी के नमूने इकट्ठा करना चाहते थे।
उनकी इस चाह ने उन्हें उत्तर प्रदेश के कानपुर में पहुंचाया, ठीक गंगा के किनारे, जो गुलामीं के दिनों से निकालकर देश के सबसे बड़े चमड़ा उद्योग का आधार बना तथा आज दुनिया के चमड़ा बाजार का लगभग 8 फीसदी जिम्मेदार है।
वहां गंगा में से लिये गए नमूनों में उम्मीद के मुताबिक परिणाम मिला। पानी में भारी धातु क्रोमियम के चिंताजनक परिणाम मिले। क्रोमियम का इस्तेमाल चमड़े के उत्पादन में उसे सख्त करने के लिए किया जाता है और साथ ही इसे इंसानों में कैंसर, डीमेंसिया, किडनी फेल और किडनी को नुकसान पहुंचाने के लिए जिम्मेदार माना जाता है।
इसी दल द्वारा आगरा में गंगा की मुख्य सहायक नदी यमुना से लिये गए पानी के नमूने अधिक चिंताजनक मिले। इसमें विघटित ऑक्सिजन का स्तर शून्य के करीब था, जिसका मतलब है दंतकथाओं में भारत की सबसे पवित्र मानी जाने वाली और जीवनदायिनी नदी, वास्तव में घुट रही है।

पानी में बहे
ऐसा नहीं है कि भारत ने अपनी पवित्र नदी की चिंताजनक परिस्थिति की ओर ध्यान नहीं दिया। 1984 में, सरकार द्वारा एक बेहद महत्वाकांक्षी योजना जिसे “गंगा एक्शन प्लान” के नाम से जाना जाता है नदी में प्रदूषकों से बढ़ती चिंता को लेकर शुरू किया गया था। व्यापक कार्य योजनाओं और उचित प्रौद्योगिकीयों की कमी की वजह से, इस योजना के दो चरणों में लाखों पानी में चले गए।
2008 में, मनमोहन सिंह सरकार ने नदी के विस्तृत आधार व्यवस्थापन के प्रयासों के लिए राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण (नेशनल गंगा रिवर बेसिन ऑथोरिटी) (एनजीआरबीए) की स्थापना की घोषणा की। और पैसे खर्च किये गए। और अधिक योजनाएं शुरू की गईं। हालांकि, पिछले 15 सालों में 9 बिलियन यानि 900 करोड़ रुपये (120 मिलियन यूएस डॉलर से अधिक) खर्च किये गए, लेकिन 2017 में राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) ने घोषित किया है कि “अब तक एक बूंद भी गंगा नदी का साफ नहीं हुआ था।”
दिसंबर 2013 में, सत्ता में आने के पहले अधिकतर लोगों ने इसे उनका सबसे तर्कसंगत चुनावी वादा माना, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2020 तक गंगा की सफाई की कसम खाई। 2014 में 200 बिलियन यानी 20,000 करोड़ की बजट के साथ पांच सालों में सफाई की योजनाओं को लागू करने के लिए “नमामि गंगे” योजना शुरू की गई। कार्यक्रम में कुछ बड़े पैमाने के लक्ष्य शामिल हैं जिसमें सीवेज प्रक्रिया सुविधा, नदी सतह की सफाई, वनीकरण, औद्योगिक प्रवाह निगरानी, रिवरफ्रंट विकास, जैव विविधता और जन जागरूकता है।
भारत ने गंगा कायाकल्प के लिए बाहरी ज्ञान, विशेषज्ञता और संसाधनों के लिए यूके, जर्मनी, फ़िनलैंड और इजराइल जैसे देशों के साथ समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किया है।
नई चुनी हुई सरकार से शायद वे पेचीदगियां जो गंगा को सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक प्रतीक बनाता है, बहुतों के जीवन से जुड़ी हुई है उसकी अनदेखी हुई है। इसके अलावा, नदी को उसका स्वास्थ्य और लंबी उम्र देने लिए जिसके वो लायक है, केंद्रीय और स्थानीय चुनौतियों के जाल को जिसे कम आंका गया था उसे साथ मिलकर सुलझाने की जरूरत है।

अप्रैल 1, 2017: भारत के कानपुर में एक औद्योगिक क्षेत्र में एक कर्मचारी चमड़े की टैनेरी में काम करता हुआ। औद्योगिक गंदा पानी खुली नालियों से बाहर आता है और पास ही गंगा में गिराया जाता है। चमडा उद्योग कानपुर में सबसे बड़ा स्रोत है प्रदूषण का। शहर के पानी उपचार संयंत्र टेनेरी से निकले सीवेज का सिर्फ आधा ही उपचार कर सकते हैं। (वीसीजी)

देवी या कचरे का ढेर
भारत में करीब करोड़ों हिंदू कभी-कभार गंगा नदी का जिक्र करते हैं और कभी-कभी पश्चिमी ‘गंगेज’ के तौर पर भी। यह ‘मां गंगा’ और ‘देवी गंगा’ भी है, जिसे अन्य जल निकायों की तुलना में अधिक भावना और श्रद्धा से पुकारा जाता है। यह पालनकर्ता है, आरोग्य साधक,एक रास्ता जो सीधा जीवन और मृत्यु को दरकिनार करते हुए स्वर्ग ले जाता है।
इसकी मेहनत और परम शक्ति का वर्णन करते हुए गाने लिखे गए हैं। विडंबना यह है कि उन 600 मिलियन लोगों के लिए जो इसके किनारे पर रहते हैं गंगा उनके नहाने, बर्तन धोने, स्विमिंग पूल और व्यापारिक बर्तन भी है साथ ही साथ उनका कचरा फेंकने के लिए कूड़ेदान है।
2,525 किलोमीटर लंबी नदी उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल राज्यों से होते हुए बंगाल की खाड़ी पहुंचती है। अपनी सहायक नदियों के साथ, नदियों का जाल 11 राज्यों तक फैला हुआ है और भारत की 40 फीसदी जनसंख्या को पानी देती है। पचास प्रमुख भारतीय शहर इसके किनारों पर बसे हुए हैं जो रोजाना 3 बिलियन (तीस करोड़) सीवेज पैदा करते हैं, नदी में पहुंचने से पहले जिसमें से सिर्फ बेहद छोटी मात्रा पर प्रक्रिया की जाती है।
घरेलू सीवेज की मात्रा कुल अपशिष्ट जल की 70 से 80 फीसदी है जो गंगा में जाती है, जबकि औद्योगिक प्रवाह और 15 फीसदी योगदान करता है, जो उनके जहरीले स्वभाव की वजह से इंसान और जलीय स्वास्थ्य पर बहुत गंभीर असर डालते हैं।
एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र की ओर बढ़ने के साथ नदी अपना रूप भी बदलती रहती है। गंगोत्री ग्लेशियर से पिघले बर्फ की पतली सी धारा, यह पहाड़ों से मैदानों में उतरते समय एक मजबूत धारा बन जाती है, अनगिनत सहायक नदियों को अपने में समाहित करते हुए, असंख्य गांवों, तीर्थस्थल शहरों से गुजरते हुए एक विस्तृत, सफेद प्रवाह में समाप्त हो जाती है।
जब नदी प्रमुख शहरों जैसे कि ऋषिकेश, इलाहाबाद और वाराणसी से गुजरती है, धूल, कालिख, गंदा पानी, चिता की लकड़ी, झाग, धुंआ औए लाखों के एकत्रित पापों का बोझ धुंधले भूरे पानी का हिस्सा बन जाता है। नदी जब आखिर में अपनी मुख्य भूमि या डेल्टा और बंगाल की खाड़ी पहुंचती है, किसी तरह यह अपने पुराने रूप में आ जाती है जिस पर इंसानी गतिविधियों के कम जख्म होते हैं।
यह आने नाम भी बदलती है और बांग्लादेश की ब्रह्मपुत्र (या जमुना), बाद में पद्मा और अंत में मेघना समेत अपने आप में कई नदियों को शामिल करती है।
पर्यावरणविद के नजरिये से यहां करीब 2000 जलीय प्रजातियां और इसके बेसिन में कम से कम 15 राष्ट्रीय उद्यान, बाघ, घड़ियाल, नदी के कछुए, और एक अनोखी, साफ पानी की प्रजाति: गंगा की डॉलफिन हैं।
नदी के लिए बहुत सारे काम करने वाले उपाय चाहिए जो उसे उसकी शुरुआत के जैसी साफ बना दे।

जनता के पैसों की बर्बादी
मार्च 2017 में नियंत्रक व महालेखा परीक्षक (सीएजी) की एक रिपोर्ट के मुताबिक, गंगा को बचाने के लिए मिली निधि का उपयोग नमामि गंगे कार्यक्रम के तहत नहीं किया जा सका। रिपोर्ट में कहा गया है कि दीर्घकालीन योजना का न होना और प्रदूषण घटाने से संबंधित कामों की कमी की वजह से कायाकल्प प्रभावित हो रहा था।
राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन (एनएमसीजी), गंगा सफाई का प्रमुख निकाय, “स्वच्छ गंगा निधि से पैसे का इस्तेमाल नहीं कर सका”, जिसका मतलब है पूरा पैसा जो कि करीब 2 बिलियन रुपये (200 करोड़) या 28 मिलियन अमेरिकी डॉलर (मार्च 31, 2017 तक) पड़े रह गए हैं।
रिपोर्ट ने योजना के कई पहलुओं की आलोचना की थी: नदी बेसिन प्रबंधन योजना का नहीं होना, उत्तराखंड के अलावा जिन राज्यों से नदी बहती है वहां पर नदी संरक्षण क्षेत्रों की पहचान न करना, घाट (नदी तटबंध) के काम से संबंधित योजनाओं और श्मशान को मंजूरी न मिलना इत्यादि। इसमें चिंताजनक आंकड़े दर्ज किए हैं, खासतौर पर सीवेज प्रक्रिया केंद्र, जो प्रदूषण को काम करने के लिए महत्वपूर्ण हैं, और ठोस-द्रव्य कचरा व्यवस्थापन गतिविधियों को लेकर।
कुल 46 सीवेज प्रक्रिया संयंत्रों में से, अवरोधन और मोड़ परियोजनाओं व नहर काम जिनकी कीमत 5000 करोड़ रुपये (700 मिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक) से अधिक है, काम शुरू करने में रुकावट, जमीन की कमी, ठेकेदारों द्वारा काम धीरे करना और सीवेज प्रक्रिया संयंत्रों का उनकी क्षमता से कम इस्तेमाल की वजह से 26 परियोजनायों में जिनकी कीमत 2700 करोड़ (388 मिलियन अमेरिकी डॉलर) में देरी हुई थी।
सूचना के अधिकार की अर्जी का जवाब देते हुए, भारत सरकार ने हाल ही में बताया कि जिन पांच राज्यों से गंगा गुजरती है वहां 144 नालों से नदी में अब भी गंदगी छोड़ी जा रही है। नमामि गंगे 2278 मिलियन लीटर प्रतिदिन की क्षमता के अपने लक्ष्य में से अब तक सिर्फ 228 मिलियन लीटर प्रतिदिन पर ही प्रक्रिया कर पाई है। अधिकतर शहरी जनसंख्या, खास तौर पर गरीबी से घिरे उत्तरी मैदानी इलाकों में रहने वाले तो सीवेज ट्रीटमेंट जाल के बहार रहते हैं, जिसकी वजह से अधिकतर गंदगी तो सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट तक पहुँचती भी नहीं है।
इस साल बजट भाषण में, वित्त मंत्री अरुण जेटली ने उल्लेख किया कि गंगा की सफाई “ने तेजी पकड़ी है, और 187 मंजूर परियोजनाओं में से 47 पूरी हो चुकी हैं।” इसके विपरीत, दिसंबर 2017 में एनएमसीजी की रिपोर्ट में बताया गया है कि पिछले चार सालों में सिर्फ 18 योजनाएं पूरी हुई हैं।

जोड़ने वाले तंत्र की ज़रूरत
जलचर प्रजातियों जैसे कि गंगा नदी की डॉलफिन, यह लड़ाई दोगुनी है। एक तरफ बढ़ता प्रदूषण का स्तर उनके बचे रहने की उम्मीदों के लिए खतरा बन रहा है, वहीं दूसरी ओर, नदी पर बढ़ते विकास ने डॉलफिन की जनसंख्या को गंभीर रूप से सिकुड़े आवास में एक जगह में घेर दिया है जो उत्तर प्रदेश में बिजनोर और नरोरा के बीच, बाँध में धारा के अनुकूल और प्रतिकूल के बीच फंसे रहते हैं।
हालांकि, संवर्धन संगठन जैसे कि डब्लूडब्लूएफ उनकी जनसंख्या पर करीब से नजर बनाये हुए हैं, लेकिन नई सरकार के नेतृत्व में नदी को और हिस्सों में बांटने की संभावना इस स्थानीय और विलुप्तप्राय: प्रजाति के अंत साबित होगी। बाँध बनाने, अत्यधिक मछली पकड़ना और प्रदूषण शायद इतिहास को दोहराने की ओर ले जा रहा है, जिसका भारत सामना कर रहा है, उसी घातक मिश्रण की वजह से चीन पहले ही बैजी या यांग्त्ज़ी नदी डॉलफिन को गवां चुका है।
आम चुनावों में सिर्फ एक साल बाकी है और स्वच्छ गंगा योजना में कोई खास प्रगति नहीं होने की वजह से, मोदी सरकार ने मंत्रालयों और विभागों में बड़े बदलाव का सहारा लिया है। हाल ही में राजीव रंजन मिश्र को एनएमसीजी के मुखिया के तौर पर दोबारा कमान दी गयी। तीन साल पहले उन्हें यह कहते हुए बाहर का रास्ता दिखाया गया था कि काम कि गति बहुत धीमी है। नितिन गडकरी को जल संसाधन, नदी विकास, गंगा कायाकल्प के नये मंत्री बनाये गये। चूँकि उनके पहले की मंत्री उमा भारती ने इस अत्यंत कठिन काम में बहुत धीमी प्रगति प्राप्त की।
दुखद वास्तविकता यह है कि सरकार और जनता की ओर से गंगा को ठीक करने के लिए निर्णायक काम के लिए निधि और इच्छाशक्ति की कमी नहीं है। बल्कि, कुछ के नजरिये जैसे कि राज्य सरकारों और पंचायत राज संस्थानों (पीआरआई) ने परियोजनाओं के नियोजन और क्रियान्वयन में महत्वपूर्ण किरदार दिया, जिसने जमीनीस्तर पर सहभाग और सफलताएं दी हैं जैसे कि गंगा नदी के बेसिन में बसे गांवों के बड़े हिस्से को खुले में शौच मुक्त क्षेत्र होना।
गंगा प्रहरी जिसमें नागरिक, स्वयंसेवक और गंगा मंथन जैसे उपक्रमों में लोगों का सहभाग, एनजीओ, पर्यावरणविदों, वैज्ञानिकों और नीतिनिर्धारकों का एक साथ मिलकर प्रतिपादन और योजना बनाने ने जागरूकता और सहभाग को बढ़ा दिया है।
अभी भी एक संसक्त, सहक्रियाशीलता कार्य योजना और जनता-सरकार कार्य बल जो नदी के वजूद को बचाए रखने के लिए और सुरक्षित रखने के तंत्रों को लागू करने की कमी है। सही इरादा ही अकेले गंगा जो नहीं बचाएगा, न ही की एक योद्धा या सरकारें। यह भारत की मां गंगा को ठीक करने के लिए एक साथ छोटे और विशाल कार्यों एक बेड़ा लेगा।

लेखक विज्ञान और पर्यावरण पर लिखती हैं और संपादक हैं। वे भारत की विलुप्तप्राय: प्रजातियों के एक वेब प्रकाशन इंडिया’स एनडेंजर्ड की संस्थापक भी हैं।