एस सी ओ एक घनिष्ठ समुदाय

“मानव साझे भाग्य वाला समुदाय” बनाने के उद्देश्य से, एससीओ का लक्ष्य समान सुरक्षा, आर्थिक सहभागिता और सामाजिक सहयोग का एक क्षेत्रीय समुदाय बनना है।
by फांग जोंगयिंग
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दिसंबर 14, 2014: कज़ाकिस्तान की राजधानी अस्ताना में बीजिंग पैलेस के सामने शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के सदस्य देशों के फहराते हुए झंडे। (शिनहुआ)

अक्टूबर 2017 में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की 19वीं राष्ट्रीय काँग्रेस को और पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना के संविधान में संशोधन में पेश किये गए दोनों रिपोर्ट्स में चीन की कूटनीति मानव साझे भाग्य वाला समुदाय को बढ़ावा देना मुख्य ध्येय और कार्य निश्चित किया गया था। यह रिपोर्ट मार्च 2018 को 13वें नैशनल पीपुल्स कांग्रेस के पहले सत्र में मंजूर हुई थी।
वर्तमान में शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) का बदलता अध्यक्ष पद चीन के पास है। यह पिछले साल इस संस्था के विस्तार के बाद चीन के पूर्वी प्रांत शानतोंग के तटवर्ती शहर छिनताओ में हुई पहली एससीओ शिखर वार्ता है।
एससीओ में 2017 में भारत और पाकिस्तान के शामिल होने से क्षेत्रीय बहुपक्षीय संस्था के लिए एक नया अध्याय चिन्हित किया गया। एससीओ के लक्ष्य को मानवता के साझे भविषय वाला समुदाय के निर्माण से जोड़ना अर्थपूर्ण है। एससीओ द्वारा कूटरचित निहित सिद्धांत, शंघाई भावना समावेशी और खुलेपन के लिए कहता है।विस्तारित एससीओ बहुपक्षीय सहयोग को बेहतर करने का प्रयास कर रहा है और चीन अन्य एससीओ सदस्यों की मदद से मानव साझे भाग्य वाला समुदाय के निर्माण की उम्मीद कर रहा है।
एससीओ “मानव साझे भाग्य वाला समुदाय” के निर्माण की संकल्पना के संबंधों के बीच कुछ गलतफहमियों को दूर करना है।
पहली बात, सिर्फ इसलिए क्योंकि चीन ने सबसे पहले मानव साझे भाग्य वाला समुदाय के निर्माण का विचार पेश किया इसका यह कतई मतलब नहीं है कि वह इस संकल्पना को दूसरे एससीओ सदस्य राज्यों पर थोपना चाह रहा है और न ही इसकी वजह से चीन के विदेश नीति में कोई मूलभूत बदलाव किया गया है।
अपने राजनीतिक सिद्धांतों को पहले जैसा ही रखते हुए, चीन अंतररष्ट्रीय मामलों में अधिक सक्रिय और उद्दमी होता जा रहा है। फिर भी, यह संधि के बजाय भागीदारी के साथ अंतरराज्यीय रिश्ते या रणनीतिक साझेदारी को विकसित करने पर जोर देता है।
चीन कभी भी दूसरे देशों के अंदरूनी मामलों में दखल नहीं देगा, बल्कि “रचनात्मक भागीदारी” के माध्यम से अपना योगदान देगा। हालांकि, चीन कभी अधिपत्य नहीं मांगेगा, लेकिन शीत युद्ध के बाद देश ‘कभी नेतृत्व नहीं लेने’ के अपनाये हुए सिद्धांत को त्यागते हुए अंतरराष्ट्रीय मामलों में अग्रणी की भूमिका निभा सकताहै।

अप्रैल 24, 2018: शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के सदस्य राज्यों की 15वें सुरक्षा मंत्रियों की बैठक चीन के बीजिंग में चल रही है। (वीसीजी)

दूसरा, मानव साझे भाग्य वाला समुदाय के निर्माण का यह कतई अर्थ नहीं है कि चीन एससीओ का इस्तेमाल वर्तमान विश्व क्रम को बदलने का प्रयास कर रहा है।
वर्तमान विश्व क्रम को लेकर चीन का दृष्टिकोण बेहद स्पष्ट है। विश्व का हिस्सा होने के नाते, चीन संरक्षक और सुधारक है। वर्तमान विश्व क्रम यू एस से संबंधित नहीं है और न ही यह ‘यू एस राज में शांति’ को शामिल करता है। लेकिन यह संयुक्त राष्ट्रों और उसकी व्यवस्था साथ ही अन्य अंतरशासकीय संस्थाएं, विशेषरूप से अंतररष्ट्रीय वित्तीय संस्थान और बहुपक्षीय व्यापार तंत्र द्वारा प्रतिनिधित्व किया जाता है।
इस तथ्य के बावजूद कि यह व्यवस्था अधूरी है और इसमें समानता, प्रतिनिधित्व, निष्पक्षता और कार्यक्षमता जैसी कुछ बड़ी कमियां हैं, आज भी मानव इतिहास में वह सब से खुलापन, समावेश की भावना, प्रगति और स्वतंत्रता का विश्व क्रम है।
तीसरा, मानव साझे भाग्य वाला समुदाय का निर्माण, आम बोलचाल, वैश्विक शासन के प्रतीक का साधन है। वैश्विक शासन के लिए बहुपक्षीय पर आधारित अंतरराष्ट्रीय समुदाय और अंतरराष्ट्रीय सहयोग के संयुक्त प्रयत्न की जरुरत है।
यह मूलभूत कारण था जिसकी वजह से चीन ने मानव साझे भाग्य वाले समुदाय के निर्माण का प्रस्ताव रखा। वर्तमान में, चीन वैश्विक शासन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। शीत युद्ध की समाप्ति के बाद से, मानवजाति द्वारा सामना किये गए आम चुनौतियों से निपटने के लिए कई अंतररष्ट्रीय मंचों और तंत्रों को स्थापित किया गया है। उनमें से एक एससीओ भी है।
“मानव साझे भाग्य वाला समुदाय” की संकल्पना तीन मुख्य तत्वों, “समुदाय या समाज”, “साधा भविष्य” और “मानवता के लिए” से बना है। इन तीन वाक्यों को अलग करने पर हम नीचे दिए गए प्रश्नों का बेहतर जवाब दे सकते हैं: मानव साझे भाग्य के लिए एससीओ किस तरह का समुदाय है ? क्यों एससीओ मानव साझे भाग्य वाला एक समुदाय है और इसे किस तरह एक बन कर काम करना चाहिए ?
पहली बात, “मानव-जाति” का अर्थ है एससीओ लोग केन्द्रित है। एक मुक्त विश्व व्यवस्था हमेशा लोग केन्द्रित होनी चाहिए। मगर, इसका यह मतलब नहीं है कि लोगों के अलग विचारों को अनदेखा कर दें। वर्तमान में, मानव-जाति कई व्यक्तिगत देशों के लिए एक समुदाय या समाज है जिसमें क्षेत्रीय और अंतरक्षेत्रीय समेत कई अंतररष्ट्रीय संस्थानों का समावेश है।
भौगोलिक रूप से, एससीओ एक ट्रांस क्षेत्रीय संगठन है, जो एक नए तरह की क्षेत्रीय संस्था का प्रतिनिधित्व करता है। इसके संदर्भ में, एससीओ अपने आप में ही एक नए ‘क्षेत्र’ के तौर पर देखा जा रहा है।
दूसरा, एससीओ सदस्य राज्य साथ ही उनके समाज और लोग “साझा भविष्य” के साथ अंतरनिर्भर हैं। शीत युद्ध के ख़त्म होने के बाद वैश्वीकरण के परिणामस्वरुप, एससीओ विश्व के क्षेत्र में करने वालों का एक दल है जहाँ सभी देश एक-दूसरे पर निर्भर रहते हैं। 19वीं शताब्दी तक यूरोप में देशों के बीच अंतरनिर्भरता सचाई में तब्दील हो चुकी थी। लेकिन 20वीं शताब्दी के दूसरे चरण में तब तक नहीं जब तक इंसानों ने इस तरह के अंतरनिर्भरता पर व्यवस्थित जानकारी विकसित किया।
1970 में अमेरिकन राजनैतिक वैज्ञानिक रोबर्ट किओहोन और जोसफ न्ये दोनों ने “अंतरनिर्भरता” पर सत्ता के नजरिये से अनुसंधान किया। एससीओ देशों और लोगों के बीच अंतरनिर्भरता के लिए एक और बेहतर उदाहरण पेश करता है।

अगस्त, 2015: शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के सदस्य राज्यों और प्रेक्षक देशों के कॉलेज स्टूडेंट्स के बीच हुए आदान-प्रदान कार्यक्रम के दौरान चेंजिंग लाइब्रेरी, शंघाई में ईस्ट चाइना नॉर्मल यूनिवर्सिटी के छात्रों ने कोरल प्रदर्शन दिया।


आखिरकार, एससीओ एक नए तरह का क्षेत्रीय समुदाय है। यह अन्य क्षेत्रीय संगठनों जैसे कि यूरोपियन यूनियन (इयू) और अफ्रीकन यूनियन और आसियान देशों से मूलत:, स्रोत, लक्ष्य, संरचना, संस्थान और प्राथमिकताओं से बेहद अलग है, लेकिन क्षेत्रीय समुदाय के परिप्रेक्ष्य में यह उनसे कुछ समानताएं साझा करता है।
सत्रह सालों के अपने इस सफ़र में, एससीओ ने सुरक्षा सहयोग, क्षेत्र में असरदार सहयोगी तंत्र बनाने पर ध्यान केंद्रित किया है। एससीओ का उदय बतौर सुरक्षा समुदाय हुआ है। यूएस के अधिपत्य पर आधारित नाटो या ईयू साधारण सुरक्षा नीति से अलग यह एक नए तरह का सुरक्षा समुदाय है।
बतौर सुरक्षा समुदाय एससीओ का क्या स्वभाव है? मेरे अनुसार, एससीओ प्रमुख देशों के नेतृत्व में जैसे कि रूस, चीन और भारत के अलावा मध्य एशिया, दक्षिण एशिया और मिडिल ईस्ट के बहुत से छोटे देशों के क्षेत्रीय सहभागिता तंत्र और अंतररष्ट्रीय कांग्रेस प्रणाली का प्रतिनिधित्व करता है।
विशेषरूप से भारत और पाकिस्तान का एससीओ में शामिल होना क्षेत्रीय सहभागिता तंत्र के संगठित स्वाभाव को दिखता है। कई बार अक्सर “सहभागिता” और “समन्वय” में भ्रमित हो जाते हैं। असल में, “सहभागिता”, “समन्वय” से कहीं ज्यादा जटिल है और विश्व शांति पर दीर्घकालिक असर डाल सकता है।
पहला और सबसे सफल अंतररष्ट्रीय सहभागिता प्रणाली अबतक 19 वीं शताब्दी में कॉन्सर्ट ऑफ़ यूरोप रहा है, जो “शांति शताब्दी” का प्राथमिक तौर पर वाहक था।
यूरोपियन कांग्रेस प्रणाली आवश्यक व्यवस्था का घटक थी जिसकी कुछ ने “19 वीं शताब्दी की सभ्यतागत उपलब्धि” के रूप में प्रशंसा की थी। ऑस्ट्रो-हंगेरियन आर्थिक इतिहासकार और समाजशास्त्री कार्ल पोलान्यी ने अपनी किताब ‘द ग्रेट ट्रांसफॉर्मेशन: द पॉलिटिकल एंड इकॉनोमिक ओरिजिन्स ऑफ़ आवर टाइम’ में सविस्तार इस विषय पर लिखा है।
द्वितीय विश्व युद्ध के अंत में, संयुक्त राष्ट्र, युद्ध को विश्व से खत्म करने के उद्देश्य से, और यूरोपियन समुदाय जिसने क्षेत्रीय स्तर पर युद्धों को रोकने के लिए नजर बनायीं हुई थी, की स्थापना की गई। वे तेजी से अंतररष्ट्रीय सहभागिता प्रणाली बन गए जिसने कॉन्सर्ट ऑफ़ यूरोप को कालबाह्य कर दिया।
तब, यूरोपियन समुदाय के आधार पर ईयू बनाया गया। यह अब भी अपने पूर्वाधिकारियों के स्वाभाव को लेकर चल रहा है: युद्ध को शांति में और शत्रुता को एकता में बदलना। यूरोप में लंबे समय से चल रहे “स्थायी शांति” का सपना अंत में ईयू के अंतर्गत ही पूरा हो पाया। जिसकी वजह से ईयू को 2012 में नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
जैसे अंतरराष्ट्रीय रिश्तों के अनुसंधान में वैश्विक शासन मुख्य विषय बन गया है, कुछ विद्वानों ने तर्क रखा कि कॉन्सर्ट ऑफ़ यूरोप ने 19 वीं शताब्दी में वैश्विक शासन की उत्पत्ति को चिन्हित किया. एससीओ की सदस्यता में विस्तार संगठन की स्थिरता और जटिलता को बढ़ावा देने को गवाही दे रहा है।
यह गौरतलब है कि बढ़ा हुआ एससीओ बढ़ते आंतरिक विवाद और अस्थिरता का भी सामना कर रहा है। उदाहरण के तौर पर, भारत और पाकिस्तान का आपसी विवाद बना हुआ है, यूएस सेना का अफगानिस्तान से पूरी तरह निकलना अभी बाकी है, ईरान का परमाणु मुद्दा वैश्विक परमाणु अप्रसार (गंभीरता के मामले में कोरियाई प्रायद्वीप के बाद दूसरा) के लिए सबसे गंभीर खतरों में से एक है। और विश्व आज भी ईरान और यूएस के बीच के लंबे समय से चल रहे गतिरोध को लेकर विश्व मौलिक हल की तलाश कर रहा है।
इस संदर्भ में, कुछ विद्वानों का मानना है कि 21वीं शताब्दी में बतौर वैश्विक शासन के सिद्धांत युद्ध और विवाद से बचाव के लिए कॉन्सर्ट ऑफ़ यूरोप की विरासत को विश्व शांति की प्रेरणा को बढ़ावा देने के लिए बने रहना चाहिए।
एससीओ, जिसकी भूमिका की पहले उपेक्षा की गई, ने अंतररष्ट्रीय समुद्री जैसे नए विषयों को शुरू किया जिनपर ध्यान देने की जरुरत है। एससीओ के बारे में चीन द्वारा प्रस्तावित बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव समुद्र और जमीन के मुद्दों से जुड़ता है। तटवर्तीय शहर छिंगताओ में आयोजित एससीओ शिखर सम्मलेन का उद्देश्य लोगों को एससीओ सहभागिता तंत्र में समुद्री मुद्दों के महत्व के बारे में याद दिलाना है।
इसके अतिरिक्त, एससीओ को एक आर्थिक और सामाजिक समुदाय होना चाहिए। इसे अब भी आर्थिक सहयोग को सुधारने में बेहतर करना है। एससीओ एक मजबूत संगठन हो सकेगा जब यह वास्तव में एक आर्थिक समुदाय बन जाएगा। आखिरकार, आर्थिक वृद्धि सभी देशों के विकास का आधार है।
एससीओ सदस्य राज्यों ने गैर सरकारी संगठनों और अन्य सामाजिक मुद्दों के मुद्दों में भी सहयोग किया है। उदाहरण के तौर पर, ये देश एससीओ के सार्वजानिक नीति पर होने वाले एससीओ पीपुल्स फॉरम और थींक टैंक मंच पर और शिक्षा, विज्ञान, संस्कृति, स्वास्थ्य और खेल जैसे सहयोग में करने वाले कामों में नियमित रूप से भाग लेते हैं। यह सब एससीओ को एक सामाजिक समुदाय की ओर ले जा रही हैं।
एक नए आरंभ स्थल पर खड़े, एससीओ को अपने आप को फिर से परिभाषित करने की जरुरत है। इस साल का अध्यक्ष देश होने के नाते चीन ने एससीओ के लिए एक नयी परिभाषा दी है: मानव साझे भाग्य वाला समुदाय यानि, एक समान सुरक्षा, आर्थिक सहभागिता और सामाजिक सहयोग वाला समुदाय।

लेखक ओसियन यूनिवर्सिटी ऑफ़ चाइना में अंतर्राष्ट्रीय रिश्तों के विशष्ट विद्वान हैं। साथ ही इंस्टिट्यूट ऑफ़ मरीन डेवलपमेंट के अध्यक्ष, ग्लोबल गवर्नेंस रिसर्च सेंटर के निदेशक, अकेडमिक कमिटी ऑफ़ ग्रैंडव्यू इंस्टीट्यूटशन के कार्यकारी अध्यक्ष और मकाओ यूनिवर्सिटी ऑफ़ साइंस एंड टेक्नोलॉजी में मानद शिक्षक हैं।